श्री लक्ष्मी नरसिंह करावलंबा स्तोत्रम , देवी लक्ष्मी और भगवान नरसिंह की स्तुति है। इसे स्तोत्रम इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें से प्रत्येक छंद एक ही कोरस "लक्ष्मी नरसिम्हा, मामा देही करावलंबम" के साथ समाप्त होता है, जिसका अर्थ है "हे भगवान नरसिंह, कृपया मुझे अपना हाथ से सहारा (आशीर्वाद) दें। 

इसकी रचना श्री आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा की गयी है। श्री लक्ष्मी नरसिंह करावलंबा स्तोत्र का पाठ अगर प्रतिदिन किया जाए, तो व्यक्ति के क्रोध का नाश होता है और साहस, आत्मविश्वास और निडरता देता है साथ ही शान्ति प्रदान करता है। श्री लक्ष्मी नरसिम्हा करावलंबा स्तोत्रम एक महान प्रार्थना है जो हर किसी को नियमित रूप से प्रतिदिन करनी चाहिए।


Lakshmi Narasimha Karavalamba Stotram


लक्ष्मी नरसिंह करावलंबा स्तोत्र || Lakshmi Narasimha Karavalamba Stotram 


श्रीमत्पयॊनिधिनिकॆतन चक्रपाणॆ 

भॊगीन्द्रभॊगमणिराजित पुण्यमूर्तॆ ।

यॊगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपॊत 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 1 ॥


लक्ष्मी जी के साथ क्षीर सागर निवासी चक्रपाणि 

शेषनाग के फन के मणि से प्रकाशित पुण्यमूर्ति  

योगपति ! सदा शरण योग्य, संसार सागर में नौकारूप 

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

ब्रह्मॆन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकॊटि 

सङ्घट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त ।

लक्ष्मीलसत्कुचसरॊरुहराजहंस 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 2 ॥


आपके अमल चरणकमल, ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, मरुत और सूर्य आदि 

देवों के कोटियों मुकुटों के समूह से अति दैदीप्यमान होते हैं। 

हे लक्ष्मी जी के कुचकमल में खेलते सुन्दर राजहंस स्वरुप,

लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

संसारदावदहनाकरभीकरॊरु-

ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य ।

त्वत्पादपद्मसरसीरुहमागतस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 3 ॥


सांसारिक दावानल की आग उगलती भयानक प्रचंड ज्वालाओं,

जिनसे मेरे शरीर का रोम-रोम जल रहा है,

उसकी शांति के लिए मैं आपके चरण कमल की शरण में आया हूँ,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

संसारजालपतिततस्य जगन्निवास 

सर्वॆन्द्रियार्थ बडिशाग्र झषॊपमस्य ।

प्रॊत्कम्पित प्रचुरतालुक मस्तकस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 4 ॥


हे जगन्निवास इन्द्रियों के विषय रूपी काँटे में 

फँसा मछली जैसा, इस संसार रूपी जाल में फँसा मैं,

उससे मेरा मष्तिष्क एवं तालू छटपटा रहे हैं,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

संसारकूमपतिघॊरमगाधमूलं 

सम्प्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य ।

दीनस्य दॆव कृपया पदमागतस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 5 ॥


अत्यंत भयंकर और अगाध तल वाले सांसारिक कुएं में गिर कर,

सैकड़ों दुःख रूपी सर्पों से व्याकुल हो रहा हूँ। 

इस प्रकार का दीन मैं आपकी शरण में आया हूँ,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघात 

निष्पीड्यमानवपुषः सकलार्तिनाश ।

प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 6 ॥


हे सकल दुखों को नाश करने वाले ! संसार रूपी भयप्रद गजेंद्र 

की सूंड़ के प्रहार से जिसका देह पीड़ित हो गया है,

जन्म-मरण के भय से अति व्याकुल ऐसे मुझको 

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

संसारसर्पविषदिग्धमहॊग्रतीव्र 

दंष्ट्राग्रकॊटिपरिदष्टविनष्टमूर्तॆः ।

नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरॆ 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 7 ॥


संसार रूपी सर्प के विष दाह से भरे हुए, प्रचंड और 

अति उग्र दांतों के सर्प दंश से नष्ट होता रहा मेरा शरीर। 

ऐसे समय सर्पों के शत्रु गरुड़ के वाहन वाले  क्षीर सागर निवासी,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

संसारवृक्षबीजमनन्तकर्म-

शाखायुतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम् ।

आरुह्य दुःखफलितः चकितः दयालॊ 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 8 ॥


पाप रूपी बीज वाले वृक्ष में, अनंत कर्मों रूपी शाखाओं वाले इस संसार में,

इन्द्रियां उसके पत्ते हैं और काम उसके पुष्प और दुःख उसके फल हैं। 

ऐसे आश्चर्य जनक वृक्ष पर मैं आरूढ़ हो गया हूँ ,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

संसारसागरविशालकरालकाल 

नक्रग्रहग्रसितनिग्रहविग्रहस्य ।

व्यग्रस्य रागनिचयॊर्मिनिपीडितस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 9 ॥


संसार सागर में विशाल काल रूपी 

मगरमच्छ का निवाला बन कर 

व्यग्रता एवं राग-द्वेष की लहरें मुझे पीड़ा देती हैं,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

संसारसागरनिमज्जनमुह्यमानं 

दीनं विलॊकय विभॊ करुणानिधॆ माम् ।

प्रह्लादखॆदपरिहारपरावतार 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 10 ॥


हे सर्वशक्तिमान, हे दया के खजाने, कृपया मुझ पर दृष्टि डालें, 

जो भौतिक अस्तित्व के सागर से अभागा और मोहग्रस्त है।

जो प्रह्लाद महाराज के संकट को दूर करते हैं, 

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

संसारघॊरगहनॆ चरतॊ मुरारॆ 

मारॊग्रभीकरमृगप्रचुरार्दितस्य ।

आर्तस्य मत्सरनिदाघसुदुःखितस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 11 ॥


हे मुरारी ! संसार रूपी घोर वन में भटकता हुआ मैं, 

कामरूपी उग्र और भयप्रद पशु से पीड़ित तथा दुःख 

और मत्सर रूपी ग्रीष्मताप से अत्यंत पीड़ित हूँ। 

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

बद्ध्वा गलॆ यमभटा बहु तर्जयन्त 

कर्षन्ति यत्र भवपाशशतैर्युतं माम् ।

ऎकाकिनं परवशं चकितं दयालॊ 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 12 ॥


मुझे यमराज के सैनिकों ने बाँधा है, सांसारिक आसक्तियों की असंख्य रस्सियों से,

और वे मुझे गले के फंदे से घसीट रहे हैं,

मैं अकेला, थका हुआ और डरा हुआ हूँ, 

हे दयालु लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

लक्ष्मीपतॆ कमलनाभ सुरॆश विष्णॊ 

यज्ञॆश यज्ञ मधुसूदन विश्वरूप ।

ब्रह्मण्य कॆशव जनार्दन वासुदॆव 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 13 ॥


हे लक्ष्मीपति, हे कमलनाथ, हे देवेश्वर, हे विष्णु 

हे वैकुण्ठ, हे कृष्ण, हे मधुसूदन, हे कमलनयन,

हे ब्रह्मण्य, हे केशव, हे जनार्दन, हे वासुदेव,

हे देवेश, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

ऎकॆन चक्रमपरॆण करॆण शङ्ख-

मन्यॆन सिन्धुतनयामवलम्ब्य तिष्ठन् ।

वामॆतरॆण वरदाभयपद्मचिह्नं 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 14 ॥


जिनके एक हाथ में पवित्र सुदर्शन चक्र है, दूसरे हाथ में शंख है,

एक हाथ से सागर की बेटी देवी लक्ष्मी को गले लगाता है,

और चौथा हाथ सुरक्षा और वरदान का प्रतीक है,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें ! 


 

अन्धस्य मॆ हृतविवॆकमहाधनस्य 

चॊरैर्महाबलिभिरिन्द्रियनामधॆयैः ।

मॊहान्धकारकुहरॆ विनिपातितस्य 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 15 ॥


मैं अपने विवेक की रुकावट के कारण अंधा था, और मेरे पास जो बहुत बड़ा धन है

इन्द्रियों के नाम से चोर द्वारा ले जाया जाता है, 

वे सब मिलकर मुझे इच्छाओं और भ्रम से भरे अंधेरे कुएँ में धकेल रहे है 

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक-

व्यासादिभागवतपुङ्गवहृन्निवास ।

भक्तानुरक्तपरिपालनपारिजात 

लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ 16 ॥


जो प्रह्लाद, नारद, पराशर, पुण्डरीक और 

व्यास, जैसे महान संतों के हृदय में निवास करते हैं,

जो अपने भक्तों से प्रेम करता है और मनोकामना देने वाला वृक्ष है, उनकी रक्षा करता है,

हे लक्ष्मी नृसिंह प्रभु, कृपया मुझे अपने हाथों का अवलम्बन दें !


 

लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतॆन 

स्तॊत्रं कृतं शुभकरं भुवि शङ्करॆण ।

यॆ तत्पठन्ति मनुजा हरिभक्तियुक्ता-

स्तॆ यान्ति तत्पदसरॊजमखण्डरूपम् ॥ 17 ॥


यह प्रार्थना जो पृथ्वी को अच्छी वस्तुओं से आशीषित करती है,

आदि शंकराचार्य द्वारा रचित है जो एक मधुमक्खी है,

जो भगवान लक्ष्मी नरसिम्हा के चरण कमलों का अमृत पी रही है

जो मनुष्य भगवान हरि की भक्ति के साथ इस स्तोत्र का पाठ करते हैं

वे भगवान लक्ष्मी नरसिम्हा के दिव्य रूप के चरण कमलों को प्राप्त कर सकते हैं।


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