हिन्दू धर्म के अनुसार शनि देव न्याय के देवता माने जाते है। अगर किसी मनुष्य पर शनि देव कृपा कर देते है तो उसकी किस्मत रातो रात बदल जाती है, लेकिन किसी अधर्मी पर शनि देव की कुदृष्टि पड़ जाए तो उसे बर्बाद होते समय नहीं लगता। 

शनि देव की दृष्टि मनुष्य के आचरण पर निर्धारित करती है अगर उनसे पुण्य किये है तो शनि देव की दृष्टि सुःख प्रदान करती है और बुरे कर्मो पर यही कुदृष्टि बन जाती है। 

शनिवार का दिन शनि देव को समर्पित होता है इस दिन शनिदेव की स्तुति का बड़ा महतव है। शनि देव की साढ़ेसाती हर मनुष्य पर आती है अगर उस मनुष्य से जाने अनजाने में कोई पाप या बुरे कर्म हुए है तो उसको दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ जरूर करना चाहिए। 

माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना श्री राम के पिता राजा दशरथ ने की थी। अगर आप भी शनिदेव के प्रकोप से बचना चाहते हैं तो हर शनिवार के दिन दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ जरूर करें। ऐसा करने से शनिदेव प्रसन्न होंगे और साढ़ेसाती, ढैया आदि किसी भी तरह की शनि संबंधित पीड़ा से मुक्ति प्रदान करंगे। 


Shree Shani Dev Stotra


श्री शनिदेव स्तोत्र || Shree Shani Dev Stotra


[ दशरथ उवाच ]

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः॥

 

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।

सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी॥

 

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।

एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्॥

 

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।

पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत!॥


[ स्तोत्र ]

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।

नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥


नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।

नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥2॥


नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।

नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥3॥


नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।

नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥4॥


नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।

सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥5॥


अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।

नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥


तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च ।

नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥


ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।

तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥


देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।

त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥9॥


प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।

एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥


[ दशरथ उवाच ]

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।

अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥


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